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सार
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आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय हम पीछे मुड़कर देखें कि देश को बनाने में जिन्होंने अपना जीवन दे दिया उनकी विरासत को हमने कितना सहेजा है? उनकी स्मृतियों से हम कितनी शक्ति लेते हैं? इस महत्त्वपूर्ण अभियान के तहत अमर उजाला ने अपने प्रतिनिधियों को देशभर में भेजा। पिछली बार आपने सरदार पटेल के जन्म स्थान से रिपोर्ट पढ़ी, इस बार पंडित नेहरू की जन्मस्थली…
पंडित जवाहरलाल नेहरू
– फोटो : Amar Ujala
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विस्तार
कहता तो कोई नहीं लेकिन, सामने वाले के चेहरे पर छपी इस इबारत को आसानी से पढ़ा जा सकता है। समय ने इतनी तेजी से करवट ली है कि जवाहर लाल नेहरू अपने ही शहर में अजनबी हो गए हैं। नेहरू के बहुआयामी व्यक्तित्व की कोई भी छाप इस शहर में आसानी से ढूंढे नहीं मिलती। यहां तक कि नेहरू के जन्मस्थान के ध्वंसावशेष भी शेष नहीं हैं।
…एक जवाहर को खोजते हुए
पुराने शहर के लोकनाथ चौराहे पर खंडहर सरीखी एक इमारत से सटी दुकान पर मोटे-मोटे हर्फों में लिखा है-यहां कटे-फटे नोट बदले जाते हैं!’ इमारत ऐसी ही और तमाम दुकानों से घिरी है। किसी पर पान बिकता है तो किसी पर सब्जी। माहौल मछली बाजार सरीखा है। इमारत के बरामदे में किसी ने बेतरतीब-सी कपड़ों की दुकान लगा रखी है। ऊपर बड़ा सा बोर्ड लगा है, जिससे खबर मिलती है कि बरामदे से सटे कमरे में कभी कोई इत्र की बड़ी दुकान रही होगी। इस तीन तल्ला मकान की ऊपरी दो मंजिलों की हालत निचली मंजिल से भी गई बीती है। यह उस जवाहर लाल नेहरू की जन्मस्थली है, जिसे कभी कविवर रवींद्रनाथ टैगोर ने राजनीति के वसंत का राजकुमार कहा था।
दरअसल, इलाहाबाद में जब भी नेहरू के घर की बात होती है तो जिक्र आनंद भवन का ही आता है। नेहरू के जन्मस्थान का उल्लेख इतिहास की किताबों में भी कायदे से नहीं मिलता है। सच तो यह है कि नेहरू जिस घर में जन्मे, उसकी अब कोई निशानी बाकी नहीं है। शहर की सांस्कृतिक विरासत पर करीब से नजर रखने वाले अभय अवस्थी कहते हैं, मौजूदा लोकनाथ चौराहे पर कभी एक कारोबारी का बाग था। इसी में बने खपरैल के एक मकान में मोतीलाल नेहरू किराये पर रहते थे। 14 नवंबर 1889 को जवाहर लाल का जन्म इसी मकान के एक कमरे में हुआ था।’
जवाहरलाल के जन्म के बाद मोतीलाल नेहरू यहां छह वर्ष तक रहे। 1895 में वह स्वराज भवन चले गए। जहां खपरैल का मकान था, आज वहीं लोकनाथ चौराहे पर खंडहर सरीखी इमारत खड़ी है। भले ही इस इमारत का नेहरू से कोई सीधा रिश्ता न जुड़ता हो, लेकिन स्थान के लिहाज से ऐतिहासिक होने के कारण वह आजादी की विरासत का अहम हिस्सा हो सकती थी। लेकिन, किसी ने इसे सहेजने का प्रयास नहीं किया। नेहरू के जन्मस्थान को लेकर एक और घर की चर्चा अक्सर होती है।
लोकनाथ चौराहे से कुछ ही दूर पर मीरगंज मोहल्ला है। अभी कुछ साल पहले तक इस मोहल्ले की कुछ गलियां रेडलाइट एरिया सरीखी हुआ करती थीं। नाच-गाने से लेकर जिस्मफरोशी तक, वह सब होता था, जिसे अंधेरी दुनिया का कारोबार कहा जाता है। कई जगह इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि नेहरू इन्हीं में से किसी गली के एक घर में जन्मे। बाकायदा एक मकान नंबर का उल्लेख करते हुए। इसे नेहरू का जन्मस्थान बताने के संदर्भ भी मिलते हैं। ‘यह सब नेहरू को बदनाम करने, उन्हें नीचा दिखाने की सियासी साजिश का हिस्सा है।’ कहते हैं अभय अवस्थी। अपनी बात के समर्थन में अभय तर्क देते हैं कि 1911 में इलाहाबाद इंप्रूवमेंट बोर्ड बना। उसके कई साल बाद नगर पालिका। उसके बाद मकानों को नंबर अलॉट हुए। नेहरू के जन्म के समय तो किसी घर का कोई नंबर होता ही नहीं था।’
आनंद भवन, जो नेहरू परिवार के घर के रूप में देशभर में विख्यात है, उसकी चमक भी हाल के सालों में तेजी से फीकी पड़ी है। यहां पर्यटकों की चहल-पहल नहीं दिखती। आनंद भवन को संचालित करने वाले ट्रस्ट के पदाधिकारियों का तर्क है कि कोरोना की वजह से पर्यटकों की संख्या घटी है। कुछ हद तक यह बात सही होते हुए भी पूरी तस्वीर सामने नहीं रखती। आनंद भवन आने वाले पर्यटकों में ज्यादातर वही होते हैं, जो संगम स्नान के लिए आते हैं। क्या कुछ पर्यटक ऐसे भी होते हैं जो सिर्फ आनंद भवन देखने के लिए यहां आते हैं? इस सवाल का सही जवाब देने को कोई तैयार नहीं होता। वह घर जो कभी देश की राजनीति का केंद्र हुआ करता था, जहां महात्मा गांधी से लेकर देश के तमाम शीर्ष नेताओं ने कुछ न कुछ दिन डेरा डाला, अगर उसे देखने-समझने की चाहत से खिंचकर लोग नहीं चले आ रहे हैं तो यह अपने आप में एक त्रासदी भी है और सियासी टिप्पणी भी। आनंद भवन आखिर संगम स्नान के पैकेज का हिस्सा क्यों नहीं होना चाहिए, वन प्लस वन की किसी स्कीम की तरह?
आनंद भवन से बमुश्किल फर्लांग भर दूर बालसन चौराहे पर कभी बीचोंबीच नेहरू की प्रतिमा अपनी पूरी गरिमा के साथ स्थापित हुआ करती थी। दो साल पहले कुंभ के दौरान शहर में तमाम बदलाव हुए। सड़कें चौड़ी की गईं। चौराहों को भव्यता प्रदान की गई। कई पुल बनाए गए। इस उठापटक में नेहरू की प्रतिमा बालसन चौराहे पर भी हाशिए की तरफ खिसका दी गई है। पहले हर आने-जाने वाले की नजर उस पर पड़ा करती थी। मगर अब, आपको सड़क पार करके कुछ कदम चलना होगा तब कहीं जा कर नेहरू से मुलाकात हो पाएगी। जिस पार्क में नेहरू की प्रतिमा स्थापित है, उसके पास मिलते हैं एक जूता टांकने वाले सज्जन। नेहरू की सोहबत में रहते-रहते धूमिल के मोची राम की तरह इनकी सियासी समझ भी पैनी हो गई है। कभी कोई आता है नेहरू की प्रतिमा की खोज खबर लेने? पूछने पर जनाब तपाक से जवाब देते हैं- को आई? साल में दुई बार कुछ कांग्रेसी आवत हैं, फूलमाला चढ़ाए। बाकी कोई का का मतलब?’
गोविंद बल्लभ पंत संस्थान के निदेशक बद्री नारायण कहते हैं- आप नेहरू के विकास की अवधारणा देखिए। वे नया रचते हैं, किंतु पुराने के लिए भी स्पेस बचाए रखते हैं। लेकिन, आज जिस तरह का आक्रामक विकास हम कर रहे हैं, उसमें पुराने के लिए गुंजाइश कम बची है।’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के प्रो. हर्ष कुमार कहते हैं, नेहरू ने आधुनिकता यूरोप से सीखी तो अपनी विरासत की समझ उन्हें इसी शहर से मिली। यही वजह है कि नेहरू की सोच में एक संतुलन है। अब ऐसा लगता है कि जैसे लोगों के बीच का धीरज चुक रहा है। शहर की उत्सवधर्मिता और बेफिक्री जैसे चुकती जा रही है।’
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि संगमनगरी ने नेहरू को पूरी तरह भुला ही दिया है। नगर निगम सभागार में नेहरू की बड़ी सी तस्वीर पूरी प्रतिष्ठा के साथ लगी है। नीचे नेम प्लेट पर लिखा है- पंडित जवाहर लाल नेहरू, एमए, बार एट लॉ। चतुर्थ अशासनिक सभापति, 3-4-1923 से 28-2-1925 तक। आज जिसे मेयर कहा जाता है वह पद नेहरू ने करीब दो वर्ष संभाला। नगर निगम का नेहरू के प्रति यह सम्मान प्रदर्शन, यह आदर भाव उस शिकवे को कुछ हद तक कम कर देता है, जो इस शहर में नेहरू की अनुपस्थिति से बार-बार सालता है।
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